मैं आज आदरणीय अज्ञेय जी की एक कविता उनकी पुस्तक"आँगन के पार द्वार" से प्रस्तुत कर रहा हूँ,आशा हैं पसंद आयेगी।
तुम्हारी पलकों का कँपना.
तनिक-सा चमक खुलना,फिर झँपना।
तुम्हारी पलकों का कँपना।
मानो दीखा तुम्हें लजीली किसी कली के
खिलने का सपना।
तुम्हारी पलकों का कँपना।
सपने की एक किरण मुझ को दो न,
हैं मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना ।
और सब समय पराया हैं।
बस उतना क्षण अपना।
तुम्हारी पलकों का कँपना।
[अज्ञेय]
मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008
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