आज फिर कुछ खो रहा हूँ
करुण तम में है विलोपित
हास्य से हो काल कवलित
अधर मे हो सुप्त, सपनो से विछुड कर सो रहा हूँ
नग्न जीवन है, प्रदर्शित
काल के हाथों विनिर्मित
टूटते हर खंड में ,चेहरा मै अपना पा रहा हूँ
आज से है कल हताहत
अब कहां जाऊँ तथागत
नीर से मै नीड का निर्माण करके रो रहा हूँ
स्वरचित... विक्रम
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें